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22 September 2020

बिहार की सियासी बिसात पर राजनीतिक औकात परखने की बारी

 



मिलन कुमार शुक्ला, पटना :  कयासों पर विराम लगाते हुए 4 सितम्बर को चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया कि करोना काल के बीच बिहार में विधानसभा चुनाव निर्धारित समय पर ही संपन्न होगा। इसके बाद बिहार में तमाम राजनीतिक दल कमर कस मैदान में कूद चुके हैं। सियासी बिसात पर राजनीतिक औकात परखने की बारी है लिहाजा मुद्दे भी सेट किए जा चुके हैं। राजद-कांग्रेस वाले महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की ओर से तेजस्वी यादव ने नई सोच, नई सरकार, युवा सरकार अबकी बार का नारा दिया है तो वहीं एनडीए के खेमें से भाजपा ने आत्मनिर्भर बिहार और जदयू नीतीश कुमार के विकास मॉडल को सामने रखकर चुनावी रण में है। राज्य के सत्ताधारी गठबंधन ने लालू-राबड़ी शासन के पंद्रह साल बनाम नीतीश सरकार के पंद्रह साल का मुद्दा भी उछाला है।

   यूं तो बिहार विधानसभा चुनाव में बाढ़ से लेकर बेरोजगारी  हमेशा से ही चुनावी मुद्दा रहा है लेकिन यह बात अलग है कि चुनाव आते-आते मुद्दे भटक जाते हैं।  इस बार भी मुद्दा वही है लेकिन इसमें सर्वाधिक चर्चा जातिगत आधारित दलित कार्ड की है। दरअसल इसकी शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहते हुए कर दिया था कि बिहार में यदि किसी दलित की हत्या होती है तो उसके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी। हालांकि इसे लेकर खूब आलोचना भी हो रही है।

दलित वोट बैंक साधने की कवायद

नीतीश कुमार के ऐलान के बाद भला दूसरी पार्टियां कहां चुप रह पाती, इसलिए राजद नेता तेजस्वी यादव ने दलित और नौकरी शब्द में से नौकरी के मुद्दे पर सरकार को घेरने की पूरी कोशिश की और उन्होंने सूझबूझ का परिचय देते हुए  घोषणा कर दिया कि वे बेरोजगारी नाम से एक पोर्टल खोलेंगे साथ ही इसके लिए एक टोल फ्री नंबर भी जारी किया जाएगा।  उधर, जन अधिकार पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव ने यह कहते हुए कि उनका समर्थन उसी पार्टी को जाएगा जो किसी दलित को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएगा, महागठबंधन से लेकर एनडीए गठबंधन तक के लिए नई परेशानी पैदा कर दी है। इसके लिए उन्होंने बकायदा 3 नाम सुझाए हैं जिनमें चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और मीरा कुमार का नाम शामिल है। आपराधिक पृष्ठभूमि के बावजूद पप्पू यादव बाढ़ और कोरोना काल में लोगों के बीच  हमदर्द बन कर पहुंचे हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता में  इजाफा हुआ है।

 दलित वोट क्यों है महत्वपूर्ण

अब यह जान लीजिए कि आखिर बिहार में दलित वोट क्यों महत्वपूर्ण है। वर्तमान सरकार में कुल 39 सीटें ऐसी हैं जिस पर विधानसभा सदस्य किसी दलित जाति से निर्वाचित है। इसमें दलगत आधार की बात करें तो महागठबंधन से 21, एनडीए के 18 विधायक हैं। इनमें एक निर्दलीय विधायक दलित जाति से है।  इन 39 विधायकों में पासवान जाति से 11, रविदास से 13, मुसहर जाति से 6, पासी जाति से 6, धोबी 2, मेहतर 1 है।  वोट प्रतिशत की बात करें तो  बिहार में दलित- महादलित वोट का अनुपात 14.2 फ़ीसदी है। 

 रोजगार है अहम चुनावी मुद्दा

 बेरोजगारी बिहार में आज भी एक बड़ी समस्या है। शायद यही वजह है कि नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव बेरोजगारी को लेकर नीतीश सरकार पर लगातार हमलावर रहते हैं। इसकी बानगी कोरोना काल में सर्वाधिक देखने को मिली। करोना काल में बिहार में बेरोजगारी दर 46 फीसदी से अधिक हो गई थी तो वहीं पूरे देश में बेरोजगारी दर केवल 23 फ़ीसदी थी। अब जबकि स्थिति में सुधार हुआ है वजूद इसके बिहार में बेरोजगारी दर दहाई अंक में ही है। वर्तमान में यह आंकड़ा बिहार में 13 फीसदी है जबकि देश में घटकर 8 फीसदी हो गया है। इसमें भी मुख्य बात यह है कि बिहार में 12 फीसदी लोगों के पास ही स्थाई नौकरी है। जबकि बाकी लोग कारोबार, खेती पर निर्भर करते हैं। एक बड़ी आबादी रोजगार के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर करती है। पलायन के बाद दूसरे राज्यों में आमदनी कर यहां भेजा जाता है जिससे बिहार में रह रहे लोगों की जरूरतें पूरा होती है। एक अनुमान के मुताबिक कोरोना काल में बिहार में तकरीबन 30 लाख से अधिक मजदूर लौटे हैं और जाहिर तौर पर इसमें से एक बड़ी संख्या बिहार विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेगी जिसका असर भी विधानसभा चुनाव पर देखने को मिलेगा।ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या एक बार फिर बिहार के सिंहासन का सुख नीतीश कुमार के खाते में जाता है या फिर बाजी कोई और मार ले जाता है।

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