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18 June 2018

भारत में चुनाव लोकतंत्र का पर्व नहीं बल्कि जातिवाद का नंगानाच है



संवैधानिक जातिवाद में डूबा छद्म-लोकतंत्र न तो सभी नागरिकों को चुनाव लड़ने की एक समान स्वतंत्रता देता है और न ही अपना मनपसंद प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता।
एक चौथाई से अधिक लोकसभा /विधानसभा सीटें तथा आधी से अधिक पंचायत /नगर निकाय की  सीटों को किसी जातीय समूहों विशेष के लिए आरक्षित कर दिया जाता है, जहाँ  जनप्रतिनिधि चुने नहीं जाते बल्कि सरकार द्वारा थोपे जाते हैं।भारत का जातिवादी छद्म लोकतंत्र सवर्णो के लिये  "संवैधानिक गुलामी" का तंत्र है।सवर्णो को जातीय आधार पर  शिक्षा रोजगार सरकारी सेवाओं से तो वंचित कर ही दिया जाता है लेकिन  जातीय आधार पर सीटें आरक्षित होने से सवर्णो के मूलभूत नागरिक अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं।
भारत के  जातीय संविधान और जातिवादी शासनतंत्र में  सवर्णो की स्थिति अपने ही देश में  अधिकार विहीन नागरिक या गुलामों जैसी है। जातीय आरक्षण के कारण सवर्ण भारत में रोहिंग्या मुसलमानों या बंग्लादेशी घुसपैठिये से भी  बदतर स्थिति में हैं। जातीय लोकतंत्र और जातीय संविधान ने  सवर्णो के लिये भारत को फिलीस्तीन जैसा बना दिया है। न अधिकार न स्वतंत्रता, पूरा देश ही कैदखाना बना है।क्या  सवर्ण उस देश को अपना कहने की स्थिति में हैं जो उन्हें समानता का अधिकार ही नहीं देता ? क्या सवर्णो को उस संविधान का भी सम्मान करना चाहिए जो उन्हें जातीय आधार पर सभी अधिकारों से वंचित कर रहा है  ? यदि लोकतंत्र और जातीय संविधान हमें अपने ही देश में गुलाम बना रहा है तो इन गुलामी के प्रतीकों का बहिष्कार क्यों न करें ??

कमलेश मिश्रा
कार्यकारी संपादक

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